आखरी युद्ध जो तलवारों ,भालो के साथ लड़ा गया,हाइफा का युद्ध

हाइफा का युद्ध The last war fought with swords, spears, Battle of Haifa

हाइफा का युद्ध
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   क्या आपने कभी इस युद्ध के बारे में किताबों में पढ़ा है ??? शायद बहुत कम लोग इस युद्ध के बारे में जानते होंगे ,ये हमारे देश की युवा पीढ़ी का दुर्भाग्य ही है ,किं विदेशी जमीन पर भी हमारे देश के जवानों की वीर गाथा को स्कूल की किताबों में पढ़ाया जाता है,और हमे इनके बारे में कुछ भी नहीं पता,,!!!?????!!!!!!!!!!???
                        तो आज भारतीय रणबाकुरों की एक अद्भुत  कहानी पढ़ते है , इन रणबाकुरों ने 23 सितम्बर 1918 को इजरायल  देश के हाइफा शहर में अपना युद्ध कौशल दिखाया था और हाइफा शहर को आजाद करवाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी,यह युद्ध लड़ा गया था जिसमें एक तरफ तो तोप,मशीन गन,और आधुनिक हथियार थे और दूसरी तरफ भारतीय सैनिकों के पास थे घोड़े भाले और तलवारे,,!;
                        तो चलते है इतिहास के पन्नों पर जिन पन्नों  को हमे पढ़ाया नहीं गया,
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                         पहले  विश्व युद्ध में इजरायल देश के हाइफा शहर को तुर्की और जर्मनी सेना से  मुक्त करवाने के लिए,ब्रिटिश सरकार ने अपनी सेना के साथ भारतीय रियासतों जोधपुर और मैसूर के सैनिकों को हाइफा की मदद के लिए भेजने का निर्णय किया; ये सभी सैनिक घोड़े, तलवार ,भाले, जैसे पुराने हथियारो से लैस थे, जोधपुर लांसर के सैनिकों का नेत्तव मेजर दलपत सिंह शेखावत  कर रहे थे,ये सभी सैनिक पहले  से ही विश्व युद्ध में भाग ले रहे थे,लेकिन अभी तक इनकी कोई मौका नहीं मिला था अपनी बहादुरी को दिखाने का!


हाइफा का युद्ध
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  23 अक्टूबर 1918  की सुबह जब जोधपुर लांसर और मैसूर लांसर हाइफा शहर के करीब पहुंची तो,वहा पर किशोन नदी की दलदली भूमि में इनके घोड़े फस गए,और तुर्की, जर्मनी, के सेना ने इनके उपर भारी हथियारों से गोला बारी शुरू कर दी,इस गोला बारी में मेजर दलपत सिंह को भी गोलियां लग गई,और वे जख्मी हो गए,उसके बाद कैप्टन अमान सिंह को जोधपुर लांसर की कमांड सौंपी गई,जिन्होंने अदभुत नेतृत्व का परिचय देते हुए जोधपुर लांसर को मात्र कुछ ही समय के अंदर दुश्मन के बिलकुल करीब पहुंचा दिया, जोध पुर लांसर के जवान अपने घोड़े और भालो के साथ तूफान बन कर दुश्मन पर टूट पड़े थे,और देखते हैं देखते उन्होंने तुर्की सेना की तोपो और मशीन गनो  पर कब्जा कर लिया और उनके हथियारों का मुंह उनकी तरफ ही मोड़ दिया,दूसरी तरफ से मैसूर लांसर के घुड़सवार भी तुर्की सेना के उपर टूट पड़े थे,हमला इतना जबदस्त था कि दुश्मन की सेना को समझ ही नहीं आया की ये हुआ क्या है,कुछ देर में ही वे वहा से भाग खड़े हुए,और जोधपुर लांसर,और मैसूर लांसर के घुड़सवारों ने उनके तकरीबन 1000 से ज्यादा सैनिकों को बंदी बना लिया,इस प्रकार भारतीय सैनिकों की वीरता के आगे तोप मशीन गन,टैंक,धरे के धरे रह गए,और हाइफा शहर कुछ ही घंटो में आजाद हो गया, ऐसा कहा जाता ये आखरी युद्ध था जो तलवारों ,भालो के साथ लड़ा गया,और विजय भी हासिल हुई,

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 इस युद्ध में मेजर दलपत सिंह को मिलिट्री क्रॉस(मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया,
हाइफा के  इस युद्ध में मेजर दलपत सिंह सहित कई घुड़सवार शहीद हुए थे,और  टुकड़ी के 60 घोड़े भी मारे गए। जोधपुर लांसर के कैप्टन अमान सिंह जोधा को सरदार बहादुर की उपाधि देते हुए आईओएम (इंडियन आर्डर ऑफ मेरिट) तथा ओ.बी.ई (ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंपायर) से सम्मानित किया गया था,
हाइफा युद्ध में इन जवानों के साहस की याद में 23 अक्टूबर को हर साल भारतीय सेना हाइफा दिवस मानती है 
और इजरायल देश भी 23 अक्टूबर को भारतीय सैनिकों के वीरता को याद करता है,,इजरायल में भारतीय सैनिकों के यह वीर गाथा स्कूलों में पढ़ाई जाती है, भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी 2017 में इजरायल की अपनी यात्रा के दौरान हाइफा शहर में बने युद्ध स्मारक में जोधपुर लांसर और मैसूर लांसर के वीर सैनिकों को श्रद्धांजलि दी थी,
               भारत की राजधानी दिल्ली में भी इन सैनिकों की याद में तीन मूर्ति हाइफा चौक बनवाया गया है, जहां पर 23 अक्टूबर को हर साल इन जवानों की बहादुरी को याद किया जाता है,और उनको श्रद्धांजलि दी जाती है,
हाइफा का युद्ध
Image source twitter (यह तस्वीर इजरायल के प्रधान मंत्री के द्वारा भेंट की गई है)

बहादुरी से भरी इस सच्ची कहानी को हमारे देश की 90 %    जनता नहीं जानती है, विदेशो में तो इस वीरता की कहानी को स्कूल में पढ़या जाता है,परन्तु हमारे देश में स्कूल में तो दूर कहीं भी  इन वीरों का उल्लेख नहीं है, शायद ये हमारा दुर्भाग्य ही है,
जोधपुर लांसर और मैसूर लांसर के वीर घुड़सवार सैनिकों को मेरी तरफ से एक श्रद्धांजलि है
    
जय हिन्द ,वन्दे मातरम्

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