सबसे कम उम्र में एवरेस्ट फतह करने वाली पूर्णा मालावत के सफर की कहानी
मालावत पूर्णा शुन्य से शिखर तक 💓💓Image source Google |
पूर्णा ने कहा था""कि मुझे एवरेस्ट से डर नहीं लगा । मुझे डर लगा था, बोनागिरी से क्योंकि bonagiri उसका पहला कदम था।जो पहला कदम पार कर जाता है वो फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखता। कहने का मतलब है कि आप शुरू तो करो ।बस शुरू करने की देर है।
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""डर मुझे भी लगा फासला देख कर,
पर मैं बढ़ता गया रास्ता देख कर,
खुद ब खुद मेरे नजदीक आती गई,
मेरी मंजिल मेरा हौंसला देख कर
जब हौसला बना लिया ऊंची उड़ान का
फिर क्या देखना ,कद आसमान का ।जी हां दोस्तों आज आपको आज एक ऐसी ही शख्सियत से रूबरू करवाने जा रहा हु,जिसने अपनी मेहनत और दृढ़ निश्चय से पूरे विश्व में अपना ही नहीं हमारे देश भारत का नाम भी गर्व से ऊंचा किया।
मालावत पूर्णा आपने नाम तो सुना होगा। शायद किसी ने ना भी सुना हो ।तो मैं बताता हु इनके बारे में । जिस उम्र में हमारे बच्चे स्कूल जाते है और हम उनकी हर जिद को पूरा करने की कोशिश कर रहे होते हैं।उस उम्र में पूर्णा ने इतिहास के पन्नों में अपना नाम हमेशा के लिए लिखा दिया था।और हमारे देश और अपने माता पिता का नाम गर्व से ऊंचा कर दिया।और समाज को बता दिया कि लड़कियां कुछ भी कर सकती है।
मालावत पूर्णा,सबसे कम उम्र में एवरेस्ट पर चढ़ने वाली विश्व की पहली लड़की है।पूर्णा ने केवल 13 वर्ष 11 माह की आयु में एवरेस्ट को फतेह कर लिया था।
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शुरुवाती जीवन............
पूर्णा का जन्म 10 जून 2000 में तेलंगाना के निज़ामाबाद जिले के पलक गांव में एक बिलकुल गरीब परिवार में हुआ था।पूर्णा के पिता का नाम देवी दास और माता का नाम लक्ष्मी है।ये आदवासी जन- जाति के लोग थे जो खेतो में मेहनत मजदूरी करके बहुत मुश्किल से अपना जीवन यापन करते थे।पूर्णा के माता पिता पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन वो अपने बच्चों को पढ़ना चाहते थे ,।ताकि उनके बच्चे कुछ अच्छा करे ।हर मां बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे जिंदगी में उनसे अच्छा काम करे। इस लिए उन्होंने पूर्णा का दाखिला सरकारी स्कूल में करवा दिया। जब पूर्णा 8 क्लास में थी तो उनके स्कूल में श्री परवीन कुमार जो की एक आईएएस ऑफिसर थे ।वो स्कूल के निरीक्षण के लिए आए थे। हीरे की परख केवल जोहरी ही कर सकता है।पूर्णा से मिलकर परवीन कुमार जी ने जान लिया था कि पूर्णा एक हीरा है जिसको बस तराशने की जरूरत है। वह स्कूल के सभी बच्चों को लेकर तेलंगाना के बोनागीरी नामक पहाड़ पर एडवेंचर के लिए लेकर गए। और श्री प्रवीण कुमार ने पूर्णागिरी पर्वत पर भारत के उभरते हुए माउंटेनियर (पूर्णा)को देखा। बोना गिरी पर 5 दिन के एडवेंचर पर उन्होंने पूर्णा की हिम्मत और जोश और काम करने की ललक को देखा।पहले दिन पूर्णा गिर गई थी। पूर्णा के लिए 750फीट के पहाड़ को क्लाइंब करना आसान नहीं था ।इससे पहले पूर्णा ने कभी रॉक क्लाइंब का नाम भी नहीं सुना था।वह सोच रही थी कि मैं कैसे क्लाइंब करूंगी इस पहाड़ पर??? मगर कहते हैं, जहां चाह होती है वहां राह होती है। पूर्णा के कोच शेखर बाबू ने उसको मोटिवेट किया और कहा !पूर्णा तुम कर सकती है , बारीक रूल बताएं रॉक क्लाइंब के।उसके बाद पूर्णा ने क्लाइंब करना शुरू किया और 5 दिन में वो सबसे बेहतर करने लगी।।और सभी बच्चों में से उसने प्रथम स्थान प्राप्त किया।Image source Google |
110 बच्चो ने इस रॉक क्लाइंब में भाग लिया था और केवल 20 बच्चे आगे की ट्रेनिंग के लिए चुने गए। यहीं से पूर्णा का एवरेस्ट को फतह करने का सफर शुरू हुआ।
बेसिक और एडवांस ट्रेनिंग के लिए दार्जिलिंग गए। जब पूर्णा दार्जिलिंग गई तो उसने बर्फ पहली बार देखी थी और उसको लगा जैसे कि वह स्वर्ग में आ गई है। वह बहुत खुश थी और अच्छे और पूरे मन और हिम्मत से अपनी ट्रेनिंग को पूरा कर रही थी।पूर्णा ने दार्जलिंग में रीनोक पिक जिसकी ऊंचाई 17000 फीट है उसको क्लाइंब किया।जब पूर्णा अपने साथियों के साथ दार्जिलिंग गई थी तो वहा के कोच इनको देख कर बोले कि इन बच्चों को इधर क्यों लाए हो ,ये कैसे माउंटेनइन कर सकते हैं???और वो सब हस रहे थे कि बच्चे एवरेस्ट कहा चढ पाएंगे।पूर्णा ने उनकी बात सुन कर मन में ठान लिया था कि मैं क्यों नहीं कर सकती ।उसने अपने आप से कहा "कि वो कर सकती है और कर के दिखाएगी।"पूर्णा मैं अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वह एवरेस्ट को क्लाइंब करके दिखाएगी। और पूरे मन से ट्रेनिंग करने लगी 20 दिन की ट्रेनिंग के बाद 20 बच्चों में से 9 बच्चे आगे की ट्रेनिंग के लिए चुने गए और उनको लद्दाख भेजा गया। वहा पर उनकी 15 दिन की ट्रेनिंग थी । जहां पर उनको -30 से - 35 डिग्री तक, मौसम में रहना और अपने आप को जीवित रखने,कपड़े, और टेंट में रहने की कला सिखाई । 15 दिन की ट्रेनिंग के बाद 9 बच्चों में से सिर्फ दो बच्चे माउंट एवरेस्ट के लिए चुने गए जिसमें से एक थी पूर्णा और दूसरा था आनंद कुमार, क्योंकि इन दोनों के अंदर जज्बा था कुछ करने का और हार ना मानने का और अपने आप को साबित करने का जो मौका इनको मिला था उसे यह छोड़ना नहीं चाहते थे। उसके बाद पूर्णा और आनंद कुमार को 3 महीने की स्पेशल ट्रेनिंग के लिए आगे भेजा गया जिसमें उनको 20 से 25 किलोमीटर चलना ,मेडिटेशन, योगा ,आदि सिखाया जाता था। इन दोनों ने इसको बहुत ही मेहनत लग्न और इच्छा शक्ति के साथ पूरा किया।इसके बाद पूर्णा ने अपनी स्कूल के पेपर दिए।उसके बाद जब पूर्णा के कोच ने पूर्णा के माता, पिता को एवरेस्ट की कुछ फोटो , वीडियो दिखाई और उनसे पूछा कि वो उनकी बेटी को एवरेस्ट क्लाइंब के लिए लेकर जाना चाहते हैं। और उधर कुछ हो गया तो ये मर भी सकती हैं।ये वापस नहीं आयेगी ऐसा भी हो सकता है । मगर पूर्णा की माता जी रोने लगी और उन्होंने कोच से कहा कि वो अपनी बेटी को नहीं भेजना चाहती है।तब पूर्णा ने अपनी मा को समझाया और कहा कि मुझे कुछ नहीं होगा और वो वापस आएगी।और श्री परवीन कुमार जी ने भी पूर्णा की माता जी को समझाया ,पूर्णा के पिता ने कहा"" बिलकुल मेरी बेटी कर सकती हैं ।और ये करेगी मुझे बिस्वास है।''उसके बाद वो वहा से आगे के सफ़र के लिए निकल गए। 14 अप्रैल 2014 को एवरेस्ट बेस कैंप पहुंच गए। और 5 दिन वे बेस कैंप में रहे।और रोज हाइकिंग करते थे।एक दिन उनको खबर मिली कि नेपाल में 17 शेरपा एवलांच की चपेट में आने से मर गए हैं।इस खबर को सुनने के बाद पूर्णा दुखी तो थी लेकिन पूर्णा ने अपना बिस्वास,हिम्मत,और will power नहीं खोया था क्युकी पूर्णा के सामने उसका गोल था और वो उसको खोना नहीं चाहती थी। इस खबर को सुनने के बाद श्री प्रवीण कुमार ने पूर्णा को फोन किया और कहा ""पूर्णा मौसम बहुत खराब है तुम वापस आ जाओ""
अवलाच भी आ सकता है।तब पूर्णा ने कुमार जी को बोला नहीं सर अब मैं वापस नहीं आऊंगी अब मैं एवरेस्ट को फतेह कर के है वापस आऊंगी ।उसने कहा से आपका ड्रीम मैं पूरा करूंगी और जरूर करूंगी।और वो आगे चल पड़े ।आगे एक सुनहरा भविष्य उनका इंतजार कर रहा था। एडवांस बेस कैंप से कैंप 1 तक पहुंच गए।कैंप 1 जाने में पूर्णा को 8 घंटे लग गए ।उसके बाद आगे का सफर और भी खतरनाक और मुश्किल भरा था। उसके बाद वे कैंप 2 से होते हुए कैंप 3 मैं पहुंच गए।24 अप्रैल 2014 को वे कैंप 3 में पहुंच गए ।कैंप 3 को डेथ ज़ोन के नाम से जाना जाता है।डेथ ज़ोन से आगे बहुत काम लोग जा पाते हैं और जो जाते हैं उनका नाम इतिहास के पन्नों में सदा के लिए अमर हो जाता है।पूर्णा की टीम को आखरी सफर तय करना था और उन्होंने रात के 9:30 बजे अपना सफर शुरू किया और रात में बहुत सारी दिक्कतों के बावजूद पूर्णा , 25 अप्रैल 2014 को सुबह के 06 बजे माउंट एवरेस्ट के टॉप पर थी।ये पूर्णा की जिंदगी का भी सवेरा था।
उसने इतिहास के पन्नों पर अपना नाम और अपने देश का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखवा दिया।
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हवलदार हंगपन दादा,(अशोक चक्र) |
मेजर शैतान सिंह मराठी माहिती |
हाइफा का युद्ध |
बाना सिंह |
हरियाणा में कौन परमवीर चक्र विजेता है |
27 जुलाई 2017 को रूस और यूरोप की सबसे ऊंची चोटी एल्ब्रस को भी पूर्णा ने क्लाइंब किया। एलब्रस के शिखर पर पहुंचने के बाद, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय गान गाते हुए 50 फीट लंबे भारतीय तिरंगे को फहराया।और एक बार फिर इस देश का नाम रोशन किया।
"""मंजिल मिल ही जायेगी भटकते ,भटकते ही सही, गुमराह तो वो है जो घर से निकले ही नहीं"""
धन्य है पूर्णा के माता पिता जिन्होनें पूर्णा जैसी बेटी को जन्म दिया ।वे भी पूर्णा जैसी बेटी पाकर खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे होंगे।।
पूर्णा उन सब लोगों के लिए प्रेणास्रोत है जो बोलते है कि लड़कियां कुछ नहीं कर सकती।
जय हिन्द जय भारत।।।।
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