कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया( परमवीर चक्र)
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''''''''''''तन समर्पित, मन समर्पित , और यह जीवन
समर्पित ,फिर भी सोचता हू मेरे देश
तुझे और क्या दु .....................
मातृ भूमि की रक्षा के लिए तो अनेक जवानों ने अनेकों बार अपनी जान की कुर्बानी दी है,लेकिन एक सैनिक का सबसे बड़ा धर्म होता है उसको मिलने वाला आदेश,जी हां आदेश के पालन के लिए एक सैनिक अपनी जान की बाजी लगा देते हैं, फिर वह यह नहीं देखते की हम कहा पर कार्य कर रहे हैं,वो तो बस निष्ठा पूर्वक और बहादुरी के साथ उस आदेश का पालन करते हैं चाहे उसका अंजाम कुछ भी हो उस आदेश के पालन के लिए वह अपनी जान की परवाह भी नहीं करते,ऐसे ही एक सैनिक की कहानी आज लिख रहा हूं,जिसने अपनी जमी पर नहीं बल्कि विदेशी जमीन पर अपनी बहादुरी का परिचय दिया और अपने राष्ट्र, अपनी बटालियन, और अपनी कौम का नाम रोशन किया,तो चले पढ़ते हैं,,,,
सन 1961 में पूरे विश्व में शीत युद्ध चल रहा था,तीसरा विश्व युद्ध होने के पूरे- पूरे संकेत थे, परन्तु सयुक्त राष्ट्र संघ ऐसा नहीं होने देना चाहता था,सयुक्त राष्ट्र संघ ने शांति के समर्थक देशों से सहायता मांगी , ताकि जिन देशों में तनाव की स्थिति है,वहा शान्ति सेना भेजी जा सके, सयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत से भी अपनी सेना भेजने का आग्रह किया,भारत ने अपनी सेना को वहा भेजने के लिए हामी भर दी,और अपनी एक टुकड़ी को यू एन मिशन के लिए नियुक्त कर दिया,इसी टुकड़ी का हिस्सा थे कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया ,
कैप्टन गुरबचन सिंह कांगो में एक अभियान में अपने दल का नेतृत्व कर रहे थे,इस अभियान में कैप्टन गुरबचन सिंह ने अदम्य साहस, कुशल नेतृत्व,और गजब कि इच्छाशक्ति का प्रदर्शन कर शत्रु को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया,और बुरी तरह से घायल होने के बावजूद भी डट कर शत्रु का सामना किया,हालाकि इस गोलबारी में वे भी वीरगति को प्राप्त हो गए,उनके इस निस्वार्थ बलिदान के लिए कैप्टन गुरबचन सिंह को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया,
कैप्टन गुरबचन सिंह संयुक्त राष्ट्र संघ की तरफ से शांति रक्षक के रूप में परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले एकमात्र सैनिक है,
कैप्टन गुरबचन सिंह का जन्म 29 नवंबर 1935 को पंजाब के शंकरगढ़ के पास जनवल गांव ( अब पाकिस्तान) में हुआ था,इनके पिता का नाम श्री मुंसी राम सैनी और माता का नाम श्रीमती धन देवी था,ये पांच भाई बहनों में से दूसरे स्थान के थे,कैप्टन गुरबचन सिंह के पिता श्री मुंसी राम ब्रिटिश भारतीय सेना में थे,
कैप्टन गुरबचन सिंह संयुक्त राष्ट्र संघ की तरफ से शांति रक्षक के रूप में परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले एकमात्र सैनिक है,
कैप्टन गुरबचन सिंह का जन्म 29 नवंबर 1935 को पंजाब के शंकरगढ़ के पास जनवल गांव ( अब पाकिस्तान) में हुआ था,इनके पिता का नाम श्री मुंसी राम सैनी और माता का नाम श्रीमती धन देवी था,ये पांच भाई बहनों में से दूसरे स्थान के थे,कैप्टन गुरबचन सिंह के पिता श्री मुंसी राम ब्रिटिश भारतीय सेना में थे,
अपने पिता की बहादुरी की कहानियों से प्रेरित होकर उन्होंने भी सेना में भर्ती होने का मन बना लिया था,
शुरुवाती शिक्षा पूरी करने के बाद गुरबचन सिंह ने सेना में भर्ती होने की तैयारी शुरू कर दी थी ,1953 में गुरबचन सिंह ने नेशनल डिफेंस अकादमी की परीक्षा पास कर ली और अपनी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद 1954 में भारतीय सेना में शामिल हो गए,गुरबचन सिंह को 2/3 गोरखा राइफल्स में बतौर सैकंड लेफ्टिनेंट नियुक्त किया गया,
अब गुरबचन सिंह सैकंड लेफ्टिनेंट गुरबचन सिंह सलारिया
बन गए थे,कुछ साल 2/3 गोरखा राइफल्स में अपनी सेवा देने के बाद सैकंड लेफ्टिनेंट गुरबचन सिंह सलारिया को 1960 में 3/1 गोरखा राइफल्स में स्थानांतरित कर दिया गया,और साथ ही अब वे सैकंड लेफ्टिनेंट से कैप्टेन के पद पर पदोन्नत हो गए थे ,
शुरुवाती शिक्षा पूरी करने के बाद गुरबचन सिंह ने सेना में भर्ती होने की तैयारी शुरू कर दी थी ,1953 में गुरबचन सिंह ने नेशनल डिफेंस अकादमी की परीक्षा पास कर ली और अपनी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद 1954 में भारतीय सेना में शामिल हो गए,गुरबचन सिंह को 2/3 गोरखा राइफल्स में बतौर सैकंड लेफ्टिनेंट नियुक्त किया गया,
अब गुरबचन सिंह सैकंड लेफ्टिनेंट गुरबचन सिंह सलारिया
बन गए थे,कुछ साल 2/3 गोरखा राइफल्स में अपनी सेवा देने के बाद सैकंड लेफ्टिनेंट गुरबचन सिंह सलारिया को 1960 में 3/1 गोरखा राइफल्स में स्थानांतरित कर दिया गया,और साथ ही अब वे सैकंड लेफ्टिनेंट से कैप्टेन के पद पर पदोन्नत हो गए थे ,
सन् 1961 का कांगो मिशन,
सन् 1960 में कांगो बेल्जियम से अगल हो गया था,कांगो को आजादी तो मिल गई थी लेकिन कांगो के लोग दो गुटों में बट गए थे जिसके कारण कांगो में ग्रह युद्ध जैसे हालात पैदा हो गए थे,इससे निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत से सैन्य मदद मांगी ,
भारत ने कांगो में शांति स्थापना के लिए 3000 सैनिक यू एन मिशन पर भेज दिए,जिसमें कैप्टेन गुरबचन सिंह की रेजीमेंट 3/1 गोरखा राइफल्स भी एक थी,
कांगो पहुंचने पर 3/1 गोरखा राइफल्स को एलिज़ाबेविले हवाई अड्डे को विद्रोहियों के कब्जे से मुक्त कराने का निर्देश दिया गया था,3/1 गोरखा राइफल्स ने यह जिम्मेदारी अपनी चार्ली (c) कम्पनी को दी,
चार्ली कंपनी के कंपनी कमांडर मेजर गोविंद शर्मा थे
मेजर गोविंद शर्मा ने दो टुकड़ियां बनाई एक टुकड़ी की अगुवाई वे खुद कर रहे थे,और दूसरी टुकड़ी की अगुवाई कैप्टन गुरबचन सिंह कर रहे थे,दोनों टुकड़ियों ने अगल अगल जगहों से हवाई अड्डे पर हमला बोलना था,
एलिज़ाबेविले हवाई अड्डे पर दुश्मन लगभग 100 सैनिकों और दो बख्तरबंद गाड़ियों के साथ मौजूद था,
06 दिसम्बर 1961 कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया अपने 16 जवानों के साथ मिलकर एलिज़ाबेविले हवाई अड्डे की तरफ चल पड़े,वहा पर पहुंचते ही दोनों तरफ से भयानक गोला बारी शुरू हो गई,दुश्मन संख्या में अधिक थे और साथ ही उनके पास स्वचालित हथियार भी थे,दुश्मन ने
बख्तरबंद गाड़ियों की मदद से कैप्टन गुरबचन सिंह के दल पर भारी गोला बारी शुरू कर दे दी थी, कैप्टन गुरबचन सिंह ने अपने जवानों को राकेट लांचर से बख्तरबंद गाड़ियों पर निशाना लगाने का आदेश दिया,और कुछ ही देर में दोनों बख्तरबंद वाहन नष्ट हो गए थे,लेकिन दुश्मन संख्या में अधिक थे ,वह लगातार फायर कर रहे थे, कैप्टन गुरबचन सिंह और उनके साथी गोरखा जवान जय महा काली आयो गोरखाली का युद्ध घोष करते हुए दुश्मनों पर टूट पड़े और खुखुरी से ही लगभग 40 दुश्मन सैनिकों को मार गिराया,उनके इस साहस को देखकर दश्मन भयभीत होकर भाग खड़ा हुआ,और हवाई अड्डे पर गोरखा राइफल्स का कब्जा हो गया,परन्तु इस नजदीकी लड़ाई में कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया की गर्दन में दो गोलियां लग गई,जिसके कारण वे वीरगति को प्राप्त हुए,आजादी के बाद कैप्टन गुरबचन सिंह पहले सैनिक थे जो विदेशी जमीन पर शहीद हुए थे,कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया को 1962 में वीरता के सर्वोच्च पुरस्कार परमवीर चक्र (मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया,
कैप्टन गुरबचन सिंह ने केवल 26 वर्ष की आयु में अपना सर्वोच्च बलिदान दिया सिर्फ अपने देश के नाम ,अपनी यूनिट के नाम और भारतीय सेना की परंपराओं को कायम रखने के लिए,
,उनकी बहादुरी के किस्से हम सबको देश प्रेम के लिए प्रेरित करते रहेंगे, इनकी वीरता पर मुझे मेरे प्यारे कवी श्री कुमार विश्वास जी एक कविता याद आ रही है जिसके बोल इस प्रकार है ............कि है नमन उनको कि जिनके सामने बोना हिमालय ,,जो धरा पर पड़े पर...आसमानी हो गये ...मुझे उम्मीद है की मेरी यह छोटी सी कोशिस की उन वीरों के बारे में आप लोगो को बता सकु ,जिनकी वीरता के कारण आप हम और ये देश सुरक्षित है ,इसलिये आप से इनुरोध है आप भी इसको जितने हो सके आगे भेजे
जय हिंद जय भारत,
भारत ने कांगो में शांति स्थापना के लिए 3000 सैनिक यू एन मिशन पर भेज दिए,जिसमें कैप्टेन गुरबचन सिंह की रेजीमेंट 3/1 गोरखा राइफल्स भी एक थी,
कांगो पहुंचने पर 3/1 गोरखा राइफल्स को एलिज़ाबेविले हवाई अड्डे को विद्रोहियों के कब्जे से मुक्त कराने का निर्देश दिया गया था,3/1 गोरखा राइफल्स ने यह जिम्मेदारी अपनी चार्ली (c) कम्पनी को दी,
चार्ली कंपनी के कंपनी कमांडर मेजर गोविंद शर्मा थे
मेजर गोविंद शर्मा ने दो टुकड़ियां बनाई एक टुकड़ी की अगुवाई वे खुद कर रहे थे,और दूसरी टुकड़ी की अगुवाई कैप्टन गुरबचन सिंह कर रहे थे,दोनों टुकड़ियों ने अगल अगल जगहों से हवाई अड्डे पर हमला बोलना था,
एलिज़ाबेविले हवाई अड्डे पर दुश्मन लगभग 100 सैनिकों और दो बख्तरबंद गाड़ियों के साथ मौजूद था,
06 दिसम्बर 1961 कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया अपने 16 जवानों के साथ मिलकर एलिज़ाबेविले हवाई अड्डे की तरफ चल पड़े,वहा पर पहुंचते ही दोनों तरफ से भयानक गोला बारी शुरू हो गई,दुश्मन संख्या में अधिक थे और साथ ही उनके पास स्वचालित हथियार भी थे,दुश्मन ने
बख्तरबंद गाड़ियों की मदद से कैप्टन गुरबचन सिंह के दल पर भारी गोला बारी शुरू कर दे दी थी, कैप्टन गुरबचन सिंह ने अपने जवानों को राकेट लांचर से बख्तरबंद गाड़ियों पर निशाना लगाने का आदेश दिया,और कुछ ही देर में दोनों बख्तरबंद वाहन नष्ट हो गए थे,लेकिन दुश्मन संख्या में अधिक थे ,वह लगातार फायर कर रहे थे, कैप्टन गुरबचन सिंह और उनके साथी गोरखा जवान जय महा काली आयो गोरखाली का युद्ध घोष करते हुए दुश्मनों पर टूट पड़े और खुखुरी से ही लगभग 40 दुश्मन सैनिकों को मार गिराया,उनके इस साहस को देखकर दश्मन भयभीत होकर भाग खड़ा हुआ,और हवाई अड्डे पर गोरखा राइफल्स का कब्जा हो गया,परन्तु इस नजदीकी लड़ाई में कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया की गर्दन में दो गोलियां लग गई,जिसके कारण वे वीरगति को प्राप्त हुए,आजादी के बाद कैप्टन गुरबचन सिंह पहले सैनिक थे जो विदेशी जमीन पर शहीद हुए थे,कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया को 1962 में वीरता के सर्वोच्च पुरस्कार परमवीर चक्र (मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया,
कैप्टन गुरबचन सिंह ने केवल 26 वर्ष की आयु में अपना सर्वोच्च बलिदान दिया सिर्फ अपने देश के नाम ,अपनी यूनिट के नाम और भारतीय सेना की परंपराओं को कायम रखने के लिए,
,उनकी बहादुरी के किस्से हम सबको देश प्रेम के लिए प्रेरित करते रहेंगे, इनकी वीरता पर मुझे मेरे प्यारे कवी श्री कुमार विश्वास जी एक कविता याद आ रही है जिसके बोल इस प्रकार है ............कि है नमन उनको कि जिनके सामने बोना हिमालय ,,जो धरा पर पड़े पर...आसमानी हो गये ...मुझे उम्मीद है की मेरी यह छोटी सी कोशिस की उन वीरों के बारे में आप लोगो को बता सकु ,जिनकी वीरता के कारण आप हम और ये देश सुरक्षित है ,इसलिये आप से इनुरोध है आप भी इसको जितने हो सके आगे भेजे
जय हिंद जय भारत,
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